( डॉ. अंबेडकर का फोटो)
नवयुवकों के निर्भीक नेता
श्रीयुत् डॉ .बी .आर .अम्बेडकर,एम .ए .,पीएच. डी.,डी.एससी. की सेवा में
श्रीमन् !
आपके पुरुषार्थ और प्रभाव से देश में
वर्ण - व्यवस्था को विध्वंस करने के लिए जो बढ़िया वायुमंडल
बन गया है - उसी की स्मृति में यह पुस्तक आपके कर कमलों में
सादर समर्पित है।
प्रथम संस्करण 1933
प्रकाशक के दो शब्द
मैं इस पुस्तक को भारत के उत्थान के लिए परम आवश्यक समझता हूँ; क्योंकि शूद्रों और अछूतों की समस्या हल हुए बिना भारत की उन्नति नहीं हो सकती है। यह पुस्तक अपने ढंग की एक ही है। भारतीय नवयुवकों के नेता डाक्टर अम्बेडकर और महात्मा गाँधी ने भी इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है कि अस्पृश्यता हिन्दुओं के विनाश का मुख्य कारण है। इस पुस्तक में प्रचलित वर्णाश्रम-धर्म की विषमता को विनष्ट करने के लिए बड़े ऊँचे विचार प्रस्तुत किये गये हैं। अन्तर्जातीय विवाह और खान-पान के बिना हिन्दू समाज का सच्चा संगठन नहीं हो सकता है-इस सिद्धान्त को बड़े रोचक और विशद शब्दों में प्रतिपादित किया है। मुझे यह लिखते हुए महान हर्ष होता है कि यह पुस्तक लेखकों ने बरसों के अनुभव के बाद वेद के उच्च सिद्धान्तों के आधार पर लिखी है और मनुस्मृति आदि जाल ग्रन्थों की प्रचलित वर्ण-व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने में सफल प्रयास किया है।
मैं लेखकों को अन्तस्तल से साधुवाद देता हूँ कि उन्होंने निर्भयतापूर्वक छिपे हुए सत्य को प्रकट किया है। मेरा पूर्ण विश्वास है कि भारत की वर्तमान प्रगति के लिए यह पुस्तक परम उपयोगी है। एक बात विशेष हर्ष की यह है कि इस पुस्तक से जो कुछ भी आमदनी होगी वह सब कानपुर के श्रीदयानन्द भारती विद्यालय को भेंट की जावेगी।
डॉ . फकीरेराम , आई . एम . डी .
हितकारी मेडिकल हाल, मेस्टन रोड, कानपुर (यू.पी.)
॥ ओम् ॥
प्रारम्भिक - वक्तव्य
निन्दन्तु नीति निपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु दिनान्तरे वा, सत्यात् पथः प्रविचलामि पदं न पूषन्
इस पुस्तक को प्रकाशित करने की क्यों आवश्यकता हुई, यह तो सारी पुस्तक पढ़ने के बाद ही पूरा-पूरा पता लग सकेगा। यहाँ तो हम संक्षेप से 'वर्ण-व्यवस्था' के वास्तविक अर्थों का दिग्दर्शन करा देना चाहते हैं। 'वर्ण-व्यवस्था' के तीन अर्थ आजकल प्रचलित हैं। वर्ण का अर्थ रंग है, वर्ण का अर्थ अक्षर है, और वर्ण का अर्थ जात भी किया जाता है। रंग के अर्थों में वर्ण व्यवस्था, काले या गोरे रंग के झगड़े में पड़ी है। आज समस्त संसार में यह कुप्रवृत्ति बढ़ रही है कि गोरे लोग कालों पर कब्जा करना चाहते हैं। बेचारे काले लोगों को दुनियाँ में जीना तक कठिन हो रहा है। भारत में भी पहिले दस्यु (काले) और आर्य (गोरे) लोगों का बड़ा घन-घोर युद्ध हुआ करता था, ऐसा सभी ऐतिहासिक मानते हैं। यह रंग की 'वर्ण-व्यवस्था' भी बड़ी भयंकर है, इसका विनाश भी तुरन्त होना ही चाहिए। अब रही-वर्णों (अक्षरों) की व्यवस्था, सो यह भी एक बड़ा रोचक संग्राम है। कोई हिन्दी के अक्षरों (वर्णों) को बढ़िया बताता है, कोई उर्दू के और कोई अँग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, आदि के। प्रयोजन यह है कि इस अक्षरों वाली 'वर्ण-व्यवस्था' में भी अभी शान्ति नहीं हैं। कोई-कोई तो हिन्दी के अति प्राचीन वर्णों में परिवर्तन करके उनकी सूरत ही बदल देना चाहते हैं। इस क्रान्ति के सिलसिले का तो हम स्वागत करते हैं-परन्तु कहीं ऐसा न हो जाए कि ''न खुदा ही मिला न विसाले सनम-न इधर के रहे न उधर के रहे'' कहीं इस क्रान्ति में नागरी-लिपि का ही सत्यानाश न हो जावे। हम यहाँ कानपुर के सुलेखाचार्य गौरीशंकर (भट्ट) को नहीं भुला सकते, जिन्होंने नागरी-लिपि को सुन्दर जामा पहनाने में कमाल कर दिया है। उनकी सारी जिन्दगी का निचोड़ 'नागरी-लिपि पुस्तकों' का निर्माण है-जो दुनियाँ में अपना सानी नहीं रखतीं। अस्तु इस प्रकार अक्षरों वाली वर्ण-व्यवस्था भी अभी क्रान्ति के मैदान में है। अब आइए अपने उस 'वर्ण-व्यवस्था' पर जिसका न सिर है और न पैर, न जड़ है और न पत्ते। यह तो अमर बेल की तरह हिन्दू समाज रूपी वृक्ष पर अपना जाल फैलाए है। हिन्दू समाज इससे अकाल मौत का शिकार हो रहा है। तो भी कोई साहस नहीं करता कि इस विषवेल को उतार कर सहारा के रेतीले मैदानों में दफना दे या अटलांटिक महासागर की खाड़ियों में बहा दे। हम ने इसी प्रचलित वर्ण-व्यवस्था का भण्डाफोड़ इस पुस्तक में किया है। प्रत्येक पहलू से पुष्ट किया है कि इस विध्वंसकारिणी वर्ण-व्यवस्था का समूलोच्छेद हो जाना चाहिए। सोचिए इस व्यवस्था में 'वर्ण' का अर्थ क्या है न रंग है और न अक्षर-तब फिर वर्ण का अर्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कैसे हो गया! कोई मिलान नहीं, कोई ऐलान नहीं और कोई प्रमाण नहीं-यों ही जबरदस्त का डेंगा सिर पर। हाँ! मनुस्मृति में जरूर लिखा है कि-'त्रयो वर्णाः द्विजातयः, चतुर्थ एकजातिः' अर्थात् पहले तीनों वर्ण द्विज हैं और शूद्र एकज है-परन्तु यह विश्वास के योग्य नहीं है, क्योंकि वेदों में 'आर्य-वर्ण' और दस्यु-वर्ण' ये दो ही वर्ण माने गए हैं। इसलिए इस वेद विरोधी मनुस्मृति के वचन को जल या अग्नि में अर्पण कर देना चाहिए। धन्य हैं-डॉक्टर अम्बेडकर और उनके साहसी सिपाही, जिन्होंने मनुस्मृति आदि कपोल कल्पित शास्त्रों की होली की। हमारी इन देश के नौनिहालों के साथ पूरी सहानुभूति है। इसलिए यह हमारी क्रान्तिकारी कृति नवयुवकों के सामाजिक नेता डॉ. अम्बेडकर के कर-कमलों में सादर समर्पित है। सच मानिए-जब तक हमारे देश में इस प्रचलित वर्ण-व्यवस्था (जाँत-पाँत) का बोल बाला रहेगा, तब तक हिन्दुओं की कोई शक्ति नहीं है जो कि अपने जिगर के टुकड़ों अर्थात् इन सात करोड़ अछूत कहे जाने वाले सीधे और सच्चे भारत के मूल निवासियों को अपने अन्दर रख सकें। अछूतोद्धार का तो एक सीधा सादा उपाय है कि भारत में प्रचलित वर्ण-व्यवस्था का विध्वंस कर दिया जावे। हिन्दू लोग जन्म से ब्राह्मण और शूद्र मानते हैं। सो अछूत तभी हिन्दुओं में ऊँचा स्थान पा सकते हैं जब वे दूसरे जन्म में द्विज कुलों में पैदा हों। अब रही-आर्य-सामाजियों की गुण कर्म वाली गाड़ी, सो बिना राज्याश्रय के वह एक कदम भी हिलने वाली नहीं। तभी तो आर्यसमाजी लोग अभी तक शुक्ल, मिश्र, शारदा, तिवारी, अग्रवाल, सक्सेना और खन्ना बने हुए हैं। इनसे पूछिए कि क्या आप इन अछूतों को भी शुक्ल, शारदा और वाजपेयी बना लेंगे? यदि नहीं-तो सिर्फ महाशय जी कहलाने के लिए अछूत लोग भला अब आर्य समाज में क्यों नाम लिखाने लगे? अब तो अछूत लोग भी सब दाँव पेंच समझ गये। हम तो दावे के साथ कहते हैं कि यदि आर्य समाज निम्नलिखित तीन संशोधनों को तुरन्त स्वीकार न कर लेगा तो सदा के लिए सो जाएगा और अपनी सत्ता को समाप्त कर देगा।
वे तीन संशोधन यह हैं-
1. वर्ण-व्यवस्था एकदम उड़ा दी जाय; क्योंकि राज्याश्रय के बिना गुण कर्म का निर्णय नहीं हो सकता।
2. नामों के साथ लगे हुए जन्मजाति-सूचक पूछल्ले एकदम साफ कर दिये जावें।
3. विवाह-सम्बन्ध बहुतायत से अछूतों में यथा-योग्य देखकर किये जावें। नहीं तो दुनियाँ कहेगी कि-
जाको राखे साइयाँ मार सकै नहिं कोय।
बाल न बाँका कर सकै जो जग बैरी होय॥
हम तो वही कहेंगे या लिखेंगे जो सच समझेंगे। सत्य को छिपाना महापाप है। सत्य को दबाना मानसिक दुर्बलता है। इसलिए सत्य के पीछे हम जहर के प्याले को पीने के लिए तैयार हैं। हम खंजर और गोली की मार का स्वागत करेंगे-परन्तु एक पग भी पीछे न हटेंगे। चाहे गालियाँ मिलें या धमकियाँ-हम अब 'वर्ण व्यवस्था' का विध्वंस करेंगे ही। या तो अब वर्ण-व्यवस्था का विध्वंस होगा या हमारा ही विध्वंस (Either end it or mend it) अधिक लिखना बेकार है।
अब हम यह भी घोषणा करते हैं कि जिन लोगों को कोई शंका हो वे हमारे पास शीघ्र लिख कर भेजें। हम अपने विचारानुसार दूसरे संस्करण में उनका पूरा पूरा उत्तर देंगे। और जो लोग केवल जबानी जमाख़र्च करते फिरते हैं-उनका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। हम यह भी भली प्रकार जानते हैं कि देश का वायु मण्डल हमारी पुस्तक के अनुकूल नहीं है-इसलिए दूसरी किताबों की तरह सहसा, शुभ सम्मतियाँ भी हम प्राप्त नहीं कर सकेंगे। प्रत्युत फटकार और धिक्कार ही हमारे लिए आशीर्वाद रूप से सुरक्षित रहेंगे। तो भी हम निर्द्वन्द्व होकर अपना कार्य करते जावेंगे। सुनिए-कोई मित्र कहता है कि पुस्तक के विचार तो ठीक हैं परन्तु पुस्तक का नाम बड़ा भयंकर है। लोग घबड़ा जाएँगे, आर्यसमाजी लोग प्लेटफार्म पर नहीं चढ़ने देंगे और उनके अख़बार वाले बौछार करेंगे। कोई मित्र लिखता है कि आप जरा नीति (Policy) से काम लीजिए। कोई मित्र सलाह देता है कि आर्यसमाजियों की सच्ची समालोचना भी मत कीजिए। ये लोग तो भिंड के छत्ते हैं-आप पर टूट पड़ेंगे। वैसे हम आपके साथ हैं, परन्तु गुप्त रूप से। इन बातों का एक ही जवाब है कि-
मर्दे मैदान मुहब्बत का मजा लेते हैं।
कौम की राह में सर अपना कटा देते हैं॥
अन्त में इतना लिखकर अपने वक्तव्य को समाप्त करते हैं कि इस पुस्तक का कुल मुनाफा कानपुर के श्रीदयानन्द भारती विद्यालय को दिया जायेगा; क्योंकि कानपुर में यही एक निःशुल्क विद्यालय सच्चे अर्थों में 'वैदिक धर्म' का प्रचारक है। जहाँ सुशील, सुबोध, गरीब छात्रों को भोजनादि दिया जाता है और अंग्रेजी-संस्कृत की उच्च शिक्षा के साथ साथ 'वैदिक धर्म विशारद' भी बनाया जाता है। इस विद्यालय के संस्थापक विद्याप्रेमी डॉक्टर फकीरेराम जी आई.एम.डी. हैं-जिन्होंने जीवन भर की गाढ़ी कमाई इस विद्यालय में लगा दी है। आशा है सहृदय सज्जन सर्व प्रकार से इस विद्यालय की सहायता करेंगे॥ किमधिकम्-
शिकस्तो फतह तो किस्मत पै है वले अय अमीर।
मुकाबिला तो दिले नातवा ने खूब किया॥
मार्गशीर्ष पूर्णिमा - ईश्वरदत्त मेधार्थी
आर्यकुमार पुस्तकालय, मेस्टन रोड, कानपुर (मुख्य-लेखक)
अनुक्रम
प्रकाशक के दो शब्द
वर्णाश्रम की रूढ़ियों के खिलाफ प्रारम्भिक-वक्तव्य
प्रचलित वर्ण व्यवस्था का वेदों में अभाव वर्ण और आश्रम
वर्ण व्यवस्था और स्वामी श्रद्धानन्द
वर्ण व्यवस्था और महात्मा बुद्ध
वर्ण व्यवस्था से विध्वंस
वर्ण व्यवस्था के दो सन्तरी
वर्ण व्यवस्था और उपजातियाँ
शर्मा वर्मा विवेचन
कान्यकुब्ज का अर्थ
कान्यकुब्ज, गौड़, वाजपेयी विवेचन
गुड़ खाएँ, गुलगुलों से परहेज
भयंकर ऐतिहासिक भूलें
अकबर, सिकन्दर और नौवली
वर्ण व्यवस्था की विष बेल
जापान की उन्नति का मूल
टर्की की उन्नति का मूल
भारत की अवनति का मूल
वर्ण व्यवस्था और स्वराज्य
वर्णसंकर और द्विजों का षड्यन्त्र
मनुस्मृति की मोह माया